म्यार मुलुक


या कविता उन परदेसियों खे च जो लोग उत्तराखंड से पलायन कर के यहाँ परदेश मे रहने लगे है
जो उस पवित्र देव भूमि को छोड़ के सब इस रावण की लंका मे आ गये है!
उन लोगो ने अपना चल चलन परदेसियों की तरह कर दिया है ! और अपनी संस्कृति थे बिसरी गी!
और भूलते जा रहे है ! 



हिट परदेशी म्यार मुलुका
जख बरख लगी होली रुणूक झुणुका
मनखी बेठ्या होला घर भितैर
चखुला उडणा होला फूर फुरुका !

उच्च धार बसी म्यार गौ
जख डांडी काठी लगी होलु हौल
मनखी काम धाड़ी लाग्या होला
बखरा चरणा होला बौंड!

सर सर ठंडी बयार चलड़ी होली
तरसीयू सरेलक तीस बुझणी होली
दाना बुढया बेठ्या होला झाजा मा
बुवारी काम धाणी लगी होली !

जवान छोरा पनदरियो मा बैठा होला
घस्यार घास बटिक ऐ गे होला
दुध्याल नोनक रोवा रो पड़ी
दाना बुढया भितैर खन खाँसना होला!

बियॊ बरातियों मे कन रंगत आई होली
अपनों दगडी भेट घाट होली
सत सत हमर पुराणियो थे
जनुल या धरती सजे होली!

उच्च धार बसी म्यार गौ
केदार सिंह म्यार नौ
तहसील मेरी मौलिखाल
जुनिया गड़ी म्यार गौ !

"केदार सिंह!"

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